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महाशिवरात्रि एक महान पर्व

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महाशिवरात्रि देवों के देव ‘महादेव’ को समर्पित पर्व है जो फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। वैसे तो प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि होती है परन्तु फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ‘महाशिवरात्रि’ के रूप में मनाया जाता है।
महाशिवरात्रि को लेकर भगवान शिव से जुड़ी कुछ पौराणिक मान्यताएं प्रचलित हैं जिनमें से एक प्रमुख मान्यता यह है कि इसी दिन भगवान शिव और देवी पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था। वहीं एक मान्यता भगवान शिव के विषपान करने से जुड़ी हुई है जिसके अनुसार अमृत प्राप्ति के लिए जब देवताओं और असुरों द्वारा मिलकर समुद्र मंथन किया जा रहा था तो कई चीजें समुद्र की सतह से ऊपर आकर प्रकट होने लगी जिनमें से एक हलाहल विष भी था जिसमें ब्रrाण्ड को नष्ट करने की क्षमता थी जिसे देखकर सभी देवताओं एवं असुरों ने उस विष भरे घड़े को छूने से भी मना कर दिया जिससे वि के सभी जीव-जन्तुओं पर संकट आ गया। इस समस्या के समाधान के लिए सभी देवगण भगवान शिव की शरण में पहुँचे और उनसे हलाहल विष से सम्पूर्ण वि की रक्षा की प्रार्थना की। तब भगवान शिव ने हलाहल विष को पीकर अपने कण्ठ में धारण कर लिया, यह विष इतना प्रभावकारी था कि भगवान शिव अत्यधिक दर्द से पीड़ित हो उठे थे और उनका कण्ठ नीला हो गया था, इसीलिये उन्हें ‘नीलकण्ठ’ भी कहा जाता है। भगवान शिव को शीतलता व शान्ति प्रदान करने के लिए चिकित्सकों ने देवताओं को उन्हें रातभर जगाए रखने का सुझाव दिया। भगवान शिव को आनन्दित कर जगाए रखने के लिए देवताओं ने रात भर नृत्य कर अलग-अलग वाद्ययंत्रों को बजाकर वातावरण को संगीतमय बनाए रखा। सुबह होने पर जब भगवान शिव पीड़ा मुक्त हुए तो सभी देवताओं को अपना आर्शीवाद प्रदान किया।
यद्यपि महाशिवरात्रि भगवान शिव द्वारा विषपान कर सम्पूर्ण जगत को नष्ट होने से बचाने का उत्सव है परन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी महाशिवरात्रि पर्व मनाए जाने के विशिष्ट कारण एवं मान्यताएं हैं। वैसे भी सभी भारतीय विशेषकर हिन्दू पर्व एवं तीज-त्यौहारों को मनाए जाने के पीछे पौराणिक कथा एवं मान्यताओं के अतिरिक्त बहुत से सामाजिक हित भी जुड़े हैं ताकि समाज स्वस्थ, प्रगतिशील एवं समावेशी बने। लोग रूढ़िवादी परम्पराओं में बंधकर जीवन यापन करने के बजाए आपस में शास्त्रार्थ करें एवं आध्यात्म के माध्यम से ईर की प्राप्ति की दिशा में अपना ध्यान केन्द्रित कर समाज का मार्गदर्शन करें।
आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए महाशिवरात्रि का पर्व बहुत महत्व रखता है क्योंकि इसी दिन भगवान शिव कैलाश पर्वत के साथ एकात्म होकर स्थिर व निश्चल हो गये थे। यौगिक परम्पराओं में शिव को किसी देवता की तरह नहीं पूजा जाता है बल्कि उन्हें ‘आदिगुरू ’ माना जाता है अर्थात् प्रथम गुरू, जिससे ज्ञान उपजा। ज्ञान की अनेक सहस्त्राब्दियो के पश्चात् जिस दिन वे पूर्ण रूप से स्थिर हो गये वह महाशिवरात्रि का दिन था। उनके भीतर की सारी गतिविधियाँ शान्त हुई और वे पूरी तरह से स्थिर हुए, इसलिये साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में भी मनाते हैं।
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी होने के कारण शिवरात्रि माह का सबसे अन्धकारपूर्ण दिवस होता है। प्रत्येक माह शिवरात्रि का उत्सव मनाने से ऐसा लगता है कि मानो हम अन्धकार का उत्सव मना रहे हों। शिव का शाब्दिक अर्थ ही यही है, ‘जो नहीं है अर्थात् शून्य अर्थात् अंधकार’। आधुनिक विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि सब कुछ शून्य से ही उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाता है। इसी सन्दर्भ में शिव यानि विशाल रिक्तता या शून्यता को ही महादेव के रूप मे जाना जाता है। प्रत्येक धर्म व संस्कृति में सदा दिव्यता की सर्वव्यापी प्रकृति की बात की जा रही है। यदि हम इसे देखें तो ऐसी एक मात्र चीज जो सही मायने में सर्वव्यापी हो सकती है, ऐसी वस्तु जो हर स्थान पर उपस्थित हो सकती है, वह केवल अन्धकार, शून्यता या रिक्तता ही है। सामान्यत: जब लोग अपना कल्याण चाहते हैं तो हम उस दिव्य को प्रकाश के रूप में दर्शाते हैं। जब लोग अपने कल्याण से ऊपर उठकर, अपने जीवन से परे जाने पर, विलीन होने पर ध्यान देते हैं और उनकी उपासना और साधना का उद्देश्य विलयन ही हो, तो हम सदा उनके लिये दिव्यता को अंधकार के रूप में परिभाषित करते हैं।
अंधकार को सदैव एक शैतान के रूप में चित्रित किया गया है परन्तु जब आप दिव्य शक्ति को सर्वव्यापी कहते हैं तो आप स्पष्ट रूप से इसे अंधकार कह रहे होते हैं क्योंकि सिर्फ अंधकार ही सर्वव्यापी है जो हर ओर है, इसे किसी के भी सहारे की आवश्यकता नहीं है। प्रकाश सदा किसी ऐसे स्रेत से आता है जो स्वयं को जला रहा होता है, यह सदा सीमित स्रेत से आता है जिसका एक आरम्भ व अन्त होता है परन्तु अंधकार का कोई स्रेत नहीं है, यह अपने आप में एक स्रेत है, यह सर्वत्र उपस्थित है। तो जब हम शिव कहते हैं, तब हमारा संकेत अस्तित्व की उस असीम रिक्तता की ओर होता है। इसी रिक्तता की गोद में सारा सृजन घटता है। रिक्तता की इसी गोद को हम शिव कहते हैं। भारतीय संस्कृति में सारी प्राचीन प्रार्थनाएं केवल आपके कल्याण या दीर्घायु के सन्दर्भ में नहीं की जाती बल्कि ये प्रार्थनाएं यह कहती हैं कि –
‘हे ईर, मुझे नष्ट कर दो ताकि मैं आपके समान हो जाऊँ।’
तो जब हम शिवरात्रि कहते हैं, जो कि माह का सबसे अंधकारपूर्ण दिन है, तो यह एक ऐसा अवसर होता है कि व्यक्ति अपनी सीमितता को विसर्जित करके सृजन के उस असीम स्रेत का अनुभव करे जो प्रत्येक मनुष्य में बीज के रूप में उपस्थित है।
आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महाशिवरात्रि की रात्रि बहुत ही विशिष्ट होती है क्योंकि इस रात्रि में ग्रह का उत्तरी गोलार्ध इस तरह होता है कि मनुष्य की ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की तरफ जाने लगती है अर्थात् इस पावन रात्रि को प्रकृति स्वयं मनुष्य को आध्यात्मिक शिखर पर ले जाने में उसकी सहायता करती है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण और योग क्रिया के सिद्धान्तों के तहत मानव शरीर में ऊर्जा का बहाव नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए क्योंकि इसी प्रक्रिया से मनुष्य को अपनी सत्यता एवं वास्तविकता का बोध होता है अर्थात् परम् तत्व से मिलन का रास्ता भी यही होता है। महाशिवरात्रि को प्रकृति स्वयं अपनी व्यवस्थाओं से मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने का रास्ता प्रदत्त करती है इसीलिए इस पावन रात्रि में मनुष्य को योग एवं ध्यान मुद्रा में रीढ़ की हड्डी को सीधा कर बैठकर रात्रि जागरण करने की बातें कही गयी हैं।
जय परम्पिता शिव-जय माँ आदिशक्ति।


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